कम लागत व सीमित देखरेख की मान्यता वाली ग्वार की फसल अब अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर निर्यात के बढ़ते स्त्रोत व नगदी फसल के रूप में तेजी से उभर रही है। वर्षा की बढ ती अनिश्चितता, कृषि उत्पादों की बढ ती कीमत तथा वैश्वीकरण के युग में ग्वार की खेती पर निर्भरता बढ ती जा रही है। इस मरू दलहन के अस्थिर क्षेत्र (५.०-३३.० लाख है.), उत्पादन (२.३०-११.७ लाख टन) व उत्पादकता (१३०-५११ कि.ग्राम/है.) में भारी उथल-पुथल, तथा ग्वार उगाने वाले प्रदेशों में उत्पादकता में भारी अन्तर (३५०-९०० कि.ग्राम/है.) के कारण इस दिशा में संबधित कारणों के बारे में विश्लेषण करना अत्यन्त आवश्यक है। अतः यह आवश्यक जान पड ता है कि अभी तक की सभी उपलब्ध अनुसंधान सूचनाओं का संकलन कर उन्हें, सरल भाव व भाषा में प्रस्तुत किया जाये । इसके फलस्वरूप आवश्यक अनुसंधान की ऊँचाईयों को जाना जा सकेगा, साथ में अनुसंधान की त्रुटियों व प्रसार की बाधाओं को भी परखा जा सकेगा, तथा भविष्य के अनुसंधान, विकास व विस्तार की दिशा तय करना आसान हो सकेगा। अखिल भारतीय मरू दलहन अनुसंधान परियोजना के अर्न्तगत विभिन्न विषयों पर भारी अनुसंधान किया गया है तथा निर्णायक निष्कर्ष उपलब्ध है। अतः वर्तमान पुस्तक में, ज्ञान के इस समुद्र को ११ अध्यायों में ब्यौरे वार प्रस्तुत किया गया है। ये अध्याय हैं: परिचय, आनुवंशिकी व प्रजनन, जनन द्रव्य संसाधन, रासायनिक, पुष्टिकर मूल्य व औद्योगिक आकृति य फसल प्रबंध, व्याधि प्रबंध, कीट विज्ञान, कार्यिकी, बीज उत्पादन, अग्रिम पंक्ति प्रदर्च्चन व उत्पादन की एकीकृत तकनीकियाँ। सभी अध्यायों के प्रारम्भ में सारांश तथा संदर्भ से पूर्व भविष्य का दृष्टिकोण दिया गया है। अन्तिम अध्याय में सम्पूर्ण जानकारी को, जो कि १० अध्यायों में विस्तार से वर्णित है, को बहुत आकर्षित व सरलता से एकीकृत रूप में प्रदेच्च/क्षेत्र/जनपद स्तर तक प्रस्तुत किया गया है। ग्वार की अब तक विद्यमान प्रौद्योगिकी को व्यवहार में लाते समय इस ११वें अध्याय को ही पढ ने की आवश्यकता होगी ।
यह पुस्तक प्राचीन व नवीन अनुसंधान सूचनाओं का अनूठा व असमान्तर खजाना है, तथा आमजनों के लिए सरल भाषा में प्रस्तुत की गई है। यह पुस्तक ग्वार के अनुसंधान-विकास-प्रसार में सर्वोत्तम साधन सिद्ध होगी, मैं ऐसा सोचता हूँ।